चेहरें हैं कि मरमर से
तराशी हुई लोहें
बाजार में या शहरें-खामोशां
में खडा हूँ मैं
[Noलोहें-पथ्तर के टुकडे
जिन पर लिखकर कब्र पर लगाते हैं
शहरें-खामोशां-कब्रीस्तान]
ग़जल...
तेरे शहर में घूमता हूँ अजनबी की तरह
दिल में मोहब्बत का ज़ज्बा है परवाने की तरह ।
इस शहर के हर ज़र्रे मं तस्वीर तेरी देखता हूँ
तूँ सलामत है इस दिल में धडकन की तरह ।
माना अजनबी हूँ मगर दोस्ती है इन फ़िजाओं से
तेरे शहर के हर गुल को चूमता हूँ भँवरे की तरह ।
ग़र मिल जाए तूँ कहीं एक रोज किसी
राह में
ख़ुदा समझ सजदा करूँगा तूझे मैं दीवाने की तरह ।
गुरिन्दर सिंह
कम्बख्त चांद हर रोज मेरी
तुरबत पे आ कर मुस्कराता है
उसकी चांदनी में मुझे प्यार का वो मंजर नजर आता है
हम भी कभी
खोये थे उसकी काली जुल्फें घनेरो
में
वक्त की बात है आज सोये
हैं ताबूत के इन अन्धेरों में ।
-गुरिन्दर सिंह
बस एक खता ग़ालिब उम्रभर करता रहा
गरद थी चेहरे पर आइना साफ करता रहा ।
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