Friday, April 12, 2019

समाज सेवा

घर से बाहर निकल कर वह अभी गली के नुक्कड तक पहुंचा ही था कि सामने से आते हुए एक व्यक्ति ने उसे रोका “एक्सयूज मी”। क्या आप मि. दलजीत सिंह हो जो सिंचाई विभाग में सुपरिटेंडिग इन्जिनियर हैं ?

 “हाँ फरमाइए।” 

 मैं आपके पडोस में ही गली न. 6 में रहता हूँ। दरअसल मुझे आपसे एक बहुत ही जरूरी बात करनी है। बल्कि यूं समझिए कि मुझे आपकी मदद चाहिए।

 इस व्यक्ति को पहले दलजीत सिंह ने कभी नहीं देखा था। सोचने लगा क्या काम हो सकता है इस व्यक्ति को मुझसे ? वह सोच के घेरे से बाहर निकला तो उसने उस व्यक्ति की और देखा।

 “अगर मेरे सार्मथ्यनुसार कोई काम हुआ तो मैं अवश्य करूंगा।” 

 धन्यवाद ! मगर.....यहां...यहां शायद ठीक नहीं रहेगा। कहीं बैठकर बात करतें हैं मेरा घर थोडी ही दूरी पर है वहीं चलते हैं। इसी बहाने मेरे गरीबखाने में भी आपके चरण पड जांऐगें।

 “बहुत बहुत धन्यवाद आपका। मगर मेरा घर तो वो सामने रहा। आइए वहीं बैठ कर बात करते हैं।” 

 घर पहुंचकर दलजीत सिंह ने अपनी पत्नी को दो कप चाय के लिए कहा। पत्नी ने अपने चेहरे पर क्रोध के भाव लाए। भोंएै चढा कर दलजीत सिंह की और देखा और रसोई घर में चली गई। 

 दलजीत सिंह गंभीर स्वभाव का है। बहुत कम बोलता है। हँसता भी कभी कभार ही है। अक्सर तब जब छुटिटयों में उसकी बेटी होस्टल से घर आती है। पत्नी के साथ अनबन हर रोज की बात है। दलजीत सिंह का उदास चेहरा अपने भीतर ढेर सारा दर्द समेटे हुए है। मगर वह मिलनसार है। कार्यालय का हर कर्मचारी उसकी कद्र करता है। सोफे पर बैठते ही वह उस व्यक्ति से मुखातिब हुआ, “हाँ फरमाइए” ।

 आपके विभाग में जे.ई. मि. चोपडा, कार्य करते है । दरअसल मेरा काम उन्ही से संबंधित है। 

 दलजीत सिंह अनुमान नहीं लगा पा रहा था कि क्या काम हो सकता है इस व्यक्ति को उससे। आज तक पडोस में किसी भी व्यक्ति को उससे कोई काम नहीं पडा। शायद आफिस का कोई काम........? 

 वह व्यक्ति दलजीत सिंह के चेहरे के भाव पढने लगा था। उससे नजर मिलते ही वह बोला- मेरा एक बेटा है। एकलोता बेटा। पिछले साल इन्जिनियरिंग की डिग्री की है और आजकल इन्जिनियरिंग कालेज मे ही लैक्चरर है। मि. चोपडा की छोटी लडकी है जो बी.बी.ए. कर रही है। दोनो एक दूसरे को पसंद करते है। मैं इन्ही के रिश्ते के बारे में आपसे बात करना चाहता हूँ। 

 “क्या नाम बताया आपने......?” 

 “राम लाल.....रामलाल कटारिया।” 

 “हाँ तो मि. कटारिया... कहीं दोनों में प्यार व्यार का चक्कर तो नही है।” दलजीत सिंह ने अपनी नजरें रामलाल के चेहरे पर गढा दी।

 “बस... ऐसा ही समझ लीजिए।” 

 दलजीत सिंह के मन में क्रोध फैला। कितना अजीब व्यक्ति है अगर अपने बेटे के रिश्ते की बात करनी है तो चोपडा से बात करे। मेरे पास क्या करने आया ? इस मामले में मैं कैसे इसकी मदद कर सकता हूँ। वह सपाट से लहजे मे बोला, “कटारिया साहिब, अगर आप सीधे ही चोपडा से बात करें तो शायद ज्यादा बेहतर होगा।” 

 “नहीं ...सिंह साहब, सीधे बात करना ठीक नहीं होगा। सच तो यह है कि हमारे बीच में जातिवाद की दीवार है। कहीं बात बिगड ना जाए। इसीलिए तो मैं आपके पास आया हूँ। मि. चोपडा आपके अधीन कार्य करते हैं। आपका प्रभाव होगा उन पर। फिर अपने आफिसर की बात तो सबोरडीनैेट मानते ही है। बच्चों की खुशी का मामला है....।” 

 दलजीत सिंह को अब पूरा मामला समझ में आ गया-“देखिए, मि. कटारिया, यह आपका एक सामाजिक मामला है। मैं इन लफडों से दूर रहना पंसद करता हूँ। अगर मेरे आफिस का कोई काम होता तो मैं अवश्य ही आपका मदद करता। साॅरी, आई कान्ट डू नथिंग इन दिस मैटर...।” 

 राम लाल के चेहरे पर उदासी की लकीरें फैल गई। उसे अपनी उम्मीद बर्फ की तरह पिघलती हुई सी लगने लगी जो कुछ ही देर में बहकर दलजीत सिंह की चोखट से बाहर निकल जाऐगी। 

 दलजीत की पत्नी चाय लेकर आ गई। उसके कान शायद इसी बातचीत पर टिके थे। सारी बातचीत रसोई में लगभग सुनाई दे रही थी। ओरतों की आदत ही ऐसी होती है। दूसरों की बातचीत पर कान टिके रहते हैं। ट्रै को मेज पर रखकर कपों में चाय डाली। पहले एक कप उस व्यक्ति के हाथ में थमा दिया और दूसरा कप दलजीत सिंह के हाथ में और फिर अपने लिए कप उठाकर सोफे में धंस गई। 

 “आप शायद रजत चोपडा के बारे में बात कर रहे हैं ?” 

 “यस मैडम।” 

 “उसकी पत्नी तो आज सुबह मिली थी मुझे बाजार में। अगर मुझे पहले पता होता तो में बात चला देती। उसकी छोटी बेटी को देखा है मैने। बडी भोली सी, भली सी लगती है।” 

 उस व्यक्ति के मन ने एक बार फिर उम्मीद कीे करवट ली। 

 “मैडम, अगर ये बात बन जाए तो मैं सदैव आप लोगों का ऋणी रहूंगा।”

 जिस बातचीत को दलजीत सिंह खत्म करना चाहता था उसी बात को उनकी पत्नी श्रेष्ठा ने आगे बढा दिया। दलजीत सिंह के चेहरे पर क्रोध की परत फैलती जा रही थी और श्रेष्ठा बोले जा रही थी- “घबराइये मत, मैं आपके बेटे के रिश्ते की बात चलाउंगी।” 

 “बहुत बहुत धन्यवाद मैडम। कोई बात चले तो बताना। अब मैं चलता हूँ।” 

 उस महाश्य के जाने के पश्चात दलजीत सिंह ने श्रेष्ठा पर गुस्सा जाहिर किया,“क्यों बेकार के पचडों में पडती रहती हो ? क्या जरूरत थी तुम्हे यह बात आगे बढाने की ?” “घर बैठे बैठे बोर हो गई हूँ । हररोज वही दिनचर्या। मैं तो आज सोच ही रही थी कि मिसेज चोपडा से कहूंगी कि मुझे भी कोई समाज सेवा का काम सौंप दे। चलो,आज यह भी अच्छा ही हुआ। इस मामले के साथ समाज सेवा के क्षेत्र में प्रवेश तो करूंगी।”

 “समाज सेवा, इसमें समाज सेवा कहां से आ गई।” दलजीत सिंह का क्रोध और आश्चर्य मिश्रित स्वर था। 

“अरे, आपने सुना नहीं। वह कह रहा था हमारे बीच जातिवाद की दीवार है।” श्रेष्ठा दलजीत सिंह को समझाने लगी, “देखो, यदि खुदा ना खास्ता यह बात जातिवाद के कारण बिगड जाती है तो जातिवाद के उपर एक लम्बा चौड़ा भाषण देने का मौका तो मिल ही जाऐगा मुझे।” 

 दलजीत सिंह को पत्नी के दिमाग की उपज पर क्रोध आने लगा,“समाज सेवा का अर्थ भी नहीं पता इसे। चली समाज सेवा करने।” 

 दलजीत सिंह ने इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझा वैसे भी बहस में वह कभी पत्नी से जीत नहीं पाया था। वह घर से बाहर निकल पडा। अभी वह गली के नुक्कड तक पहुँचा ही था कि संयोगवश उसी जगह पर एक व्यक्ति ने उसे फिर रोका। 

 “माफ कीजिएगा, आप दलजीत सिंह......?” 

 “हाँ हाँ, बिल्कुल ठीक पहचाना आपने।” 

 “एक जरूरी बात करनी है आपसे। आप ही के घर जा रहा था”, वह व्यक्ति बोला।

 “अब तो मैं जरूरी काम से बाजार जा रहा हूँ। आप कल आइऐगा।” 

 “नहीं सिंह साहब, प्लीज...कल तो मैं जरूरी काम से दिल्ली जा रहा हूँ। मैं आपका ज्यादा समय नहीं लूंगा।”

 “चलिए..।” दलजीत सिंह अनमना सा फिर घर की और चल दिया। 

 घर पहुँचकर उसने सोफे में धसते हुए कहा-“हाँ तो फरमाइए।” 

 वह व्यक्ति बोलने लगा,“छज्जू सेठ कहते हैं मुझे। मकरपुर गाँव का रहने वाला हूँ। मकरपुर गाँव में आप जो बरसाती नाला खुदवा रहे हैं। उसी के सिलसिले में मैं बात करना चाहता हूँ। इस नाले में गाँव के लम्बरदार की थोडी सी जमीन बीच में आती हैं। दरअसल वह जमीन सरकारी है जिसपर उसने कब्जा जमाया हुआ है। आपके विभाग में मि0 चोपडा जे0ई0 हैं। मैने सुना है उसने चालिस हजार बतोर रिश्वत लिए हैं लम्बरदार से, उस जमीन के टुकडे को बचाने के लिए। आपके विभाग का मामला है। इसलिए समाजसेवक के नाते अपना फर्ज समझते हुए चला आया आपको बताने। रिश्वतखोरी का मामला है। कार्रवाई तो आपको ही करनी है। वैसे तो मैं भी मि. चोपडा को अच्छी तरह जानता हूँ।” 

 “आप चोपडा को जानते हैं। फिर भी उसके खिलाफ शिकायत कर रहे हैं।” 

 “साहब जान पहचान अपनी जगह है। मगर यह रिश्वतखोरी का मामला है।” वह व्यक्ति दलजीत सिंह को आश्वस्त करना चाहता था। 

 “आप कैसे जानते हो चोपडा को ?” 

 “हमारी ही बारादरी का है। मेरे छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है उसकी बडी लडकी के साथ। मेरा लडका डाक्टर है। मैने तो उससे सरसरी सी बात की थी कि लडके को डाक्टर बनाने में मैने इतना पैसा खर्च किया है। बस बिफर पडा वह। कहने लगा- तुम तो दहेज में लडके के उपर किया सारा खर्च माँग रहे हो। देखो साहब, मैं तो दहेज के सख्त खिलाफ हूँ। मगर इस बात में क्या बुराई है। मैने खर्च तो किया ही है न अपने लडके के उपर। यह बात तो करनी ही पडती न.......।” वह व्यक्ति बोले जा रहा था। 

 “अच्छा, ठीक है। मैं चोपडा से बात करूंगा। अगर सच्चाई निकली तो मैं अवश्य ही कार्रवाई करूंगा।” दलजीत सिंह ने उस महाश्य से वायदा करके उसे अपने गले से उतारने की बात की।

 वह व्यक्ति उठकर चलने की मुद्रा में था कि सिंह साहब की पत्नी श्रेष्ठा चाय लेकर सामने आ खडी हुई। वह महाश्य चाय देखकर फिर से आराम की मुद्रा में बैठ गए। चाय का कप उस महाश्य के हाथ में थमाकर श्रेष्ठा सोफे में धँस गई। जिस बला को दलजीत सिंह गले से उतारना चाहता था फिर से उसको गले पडती नजर आने लगी। 

 श्रेष्ठा बोलने लगी, “देखिए मिस्टर, अगर रिश्वतखोरी का मामला निकला तो सिंह साहब अवश्य ही कार्रवाई करेंगे। मगर यह जो दहेज प्रथा का मामला है न इसकी कार्रवाई मैं करूंगी।” 

दलजीत सिंह दोनों हाथों के बीच सर दबाकर खामोश मुद्रा में बैठ गया। क्रोध की एक झीनी सी परत फिर उसके चेहरे पर झलकने लगी थी। 

 “दहेज प्रथा, कैसी दहेज प्रथा ?” वह व्यक्ति आश्र्चय से श्रेष्ठा के मुँह की ओर ताकने लगा। 

 “देखिए, आप सीधे तौर पर नहीं बल्कि बात को घुमा फिरा कर दहेज मांग रहे हैं।” 

 “मगर इससे आपको क्या लेना देना बहिन जी ? मैं तो चोपडा जी के खिलाफ शिकायत करने आया हूँ।” 

 “लेकिन आपकी शिकायत के पीछे मुझे बदले की भावना नजर आ रही है।” सिंह साहब की पत्नी सख्त लहजे मे थी। 

 “बहिन जी, आप तो नाराज हो गईं।” उस व्यक्ति ने चाय का आधा खाली कप मेज पर टिकाकर धन्यवाद किया और खिस्कता बना। 

 दलजीत सिंह ने गहरी श्वास छोडी । श्रेष्ठा चाय के खाली कप उठाकर रसोई में चली गई। 

 थेाडी देर बाद रसोई से पत्नी साहिबा की आवाज आई, “अजी सुनते हो। कल निक्की को भी आना है। उसको कपूर की बेकरी के बिस्कुट बहुत पसंद हैं। थोडे से ले आते।” 

 दलजीत सिंह कुछ देर आराम करना चाहता था। मगर क्या करता पत्नी सहिबा का हुक्म था। मानना तो पडता। कपूर साहिब की बेकरी घर से कुछ ही दूर नुक्कड पर थी। सिंह साहिब सोचते सोचते कि फिर से कोई बला गले ना पड जाए बेकरी की दुकान पर पहुँच गए। 

 बेकरी वाले कपूर साहिब बोले,“ सिंह साहिब, आजकल तो भाभी जी समाज सेवा के कार्य में जुटी हुई हैं। शहर में धूम मची है भाभी जी की।” 

 दलजीत सिंह ने कपूर की बात का जवाब दिए बिना ही उसे पैसे पकडाए और चल दिए। रास्ते में वह बुडबडाने लगा था, “आज तक जिसने अपने पति की सेवा नहीं की वह समाजसेवा क्या खाक करेगी। बेकार की ढकोसलेबाजी। समाज में अपना रूतबा बढाने के लिए समाज सेवा अच्छा हथियार है इन औरतों के पास। घर की समस्याएं तो सुलझती नहीं बाहर के लोगों की समस्याओं को सुलझाती फिरती हैं.......।” 

 घर पहुँचकर दलजीत सिंह ने बिस्कुट रसोई में श्रीमति जी को थमा दिए और चुपचाप जा कर बैडरूम में लैट गए। थोडी सी हिम्मत करके पत्नी को उँची आवाज में कहा,“एक कप चाय तो बना देना। सरदर्द हो रहा है।” उधर से कोई आवाज नहीं आई। मगर थोडी ही देर बाद श्रीमति जी चाय का कप हाथ में लिए सामने खडी थी। सिंह साहब को आश्चर्य हो रहा था। वह बैड पर ही साथ बैठ गई। कहने लगी, “कल निक्की होस्टल से आ रही है। सोचती हूँ “नारी उत्थान समिति” की मीटिंग में उसकी भी जान पहचान करवा दूँ । कुछ उपहार आदि भी लेने पडेंगे “नारी उत्थान समिति” की अध्यक्षा को देने के लिए। इससे उनकी नजरों में मेरी पोजिशन भी बन जाऐगी।” श्रीमति जी अपने मन में उछलता विचार सुनाकर फिर रसोई में लोट गई। 

 अगले दिन निक्की आई थी। इसी विषय पर जब बात चली तो निक्की ने माँ की इच्छा को एकदम नकार दिया था, “तुम भी फजूल के चक्रों में फँस गई मम्मा अपना सटेटस बनाने के लिए और अपने स्वार्थ के लिए की गई समाज सेवा..... मैं इन सब बातों को पसंद नहीं करती। मम्मा यह ढिगोशलेबाजी मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। अगर सेवा करनी ही है तो बेसहारों, अपंगो व अनाथ बच्चों की करो। मम्मा साॅरी...मैं आपके साथ मिटिंग में नहीं जाउंगी।” श्रेष्ठा झुँझलाकर फिर रसोईघर में चली गई। वह बुडबुडा रही थी- ये बाप बेटी तो बस एक जैसे हैं......। 

बेटी का सपाट सा जवाब सुनकर दलजीत सिंह खुश था। उसे अपनी बेटी पर यह सोच कर गर्व हो रहा था, “चलो, आधुनिक शिक्षा के असर से मेरी बेटी कोसों दूर है। आधुनिक समाज की अंधी दौड में कम से कम वह तो शामिल नहीं है। मगर पत्नी सहिबा थी कि टस से मस नहीं हुई। समाज सेवा का भूत उसके सर पर ज्यों का त्यों सवार था। उसके बुडबुडानें का स्वर अभी भी दलजीत सिेह के कानों से टकरा रहा था। वह अपना गुस्सा रसोई के बर्तनों पर उतार रही थी। 

 दलजीत सिंह का सरदर्द और भी बढ गया था। उसने गहरी श्वास छोडी मगर तभी उसके कानों से आवाज टकराई,“ अभी तक आप सब्जी लेकर नहीं आए। सात बजने को हैं। एक तो ज्यादा युधिष्ठर बनते हो। कितनी बार कहा है कि आफिस की गाडी बुला लिया करो। सारे काम मैं खुद ही निपटा लिया करूंगी......।” 

 “सब्जी तो मैं कब का ले आता मगर तुम्हारी समाज सेवा खत्म होती तब ना........।

अभी जाता हूँ ।” दलजीत सिंह ने माथे से हाथ हटा कर कहा। 
 अब रहने दो सब्जी। दाल चढा लूंगी। 



गुरिन्दर सिंह
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